ईद का चाँद दीवाली की रात में निकला,
तन्हा सी रात में महताब भी तन्हा निकला
बसता था मेरे दिल में वो एहसास की तरह,
दिल तोड़ गया वो मगर दिल से नही निकला
उसने न हाय की कोई मुझसे कभी वफ़ा
मैं कैसे कहूं मेरा सनम बेवफा निकाला
माज़ी से शिक़ायत है न मंजिल की जुस्तजू
रस्ता मेरा मंजिल के बहुत दूर से निकला
यह सच है कभी तूने ना समझी मेरी वफ़ा
सच ये भी है की मैं भी न काबिल तेरे निकला
मेरी न हुई ज़ीस्त में कोई दुआ कबूल
एक वो है कि जिसका तो बुत भी खुदा निकला
दिल में तेरी वफ़ा से थी आंखों में रौशनी
दिल तूने बुझाया तो धुआं आँख से निकला
रातें तो दीवाली की होती हैं अँधेरी,
महताब आरजू था मेरी जो ख्वाब में निकला
December 18, 2007 at 3:41 AM
ACHA LIKHA HAI. SHAYED AAPNE RAMZAN WALI EID KA CHAND KE BARE ME LIKHA HOGA, AUR AB TO BAKRE KI EID KA TIME HAI JISME CHAND NAHI DEKHA JATA :)
SHUAIB
http://shuaib.in/chittha
December 18, 2007 at 6:50 AM
बहुत बढिया गजल है...बधाई।
बसता था मेरे दिल में वो एहसास की तरह,
दिल तोड़ गया वो मगर दिल से नही निकला
December 18, 2007 at 4:36 PM
Aapne bilkul sahi pehchana Shuaib bhai, yeh ramzaan wali eid ka hi zikr hai. Farq yeh hai ki humara ramzaan (seperation) abhi tak chal raha hai, chand (hope) sirf kwaab mein dikhai diya, aur milan ki eid abhi tak nahi aayi!
Beharhaal tareef key liye shukriya.
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